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द॒स्रा हि विश्व॑मानु॒षङ्म॒क्षूभि॑: परि॒दीय॑थः । धि॒यं॒जि॒न्वा मधु॑वर्णा शु॒भस्पती॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dasrā hi viśvam ānuṣaṅ makṣūbhiḥ paridīyathaḥ | dhiyaṁjinvā madhuvarṇā śubhas patī ||

पद पाठ

द॒स्रा । हि । विश्व॑म् । आ॒नु॒षक् । म॒क्षुऽभिः॑ । प॒रि॒ऽदीय॑थः । धि॒य॒म्ऽजि॒न्वा । मधु॑ऽवर्णा । शु॒भः । पती॒ इति॑ ॥ ८.२६.६

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:26» मन्त्र:6 | अष्टक:6» अध्याय:2» वर्ग:27» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:4» मन्त्र:6


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शिव शंकर शर्मा

पुनः उसी वस्तु को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - इस ऋचा से भी अश्विद्वय के विशेषण कहते हैं। वे राजा और मन्त्रिदल (दस्रा) दर्शनीय और शत्रुओं के क्षय करनेवाले हों, (धियञ्जिन्वा) प्रजाओं की बुद्धियों और कर्मों को बढ़ावें और (मधुवर्णा) उनके वर्ण मधुर और सुन्दर हों, (शुभस्पती) समय-२ पर जलों के प्रबन्धकर्ता हों, वैसे मन्त्रिदलसहित राजा (मक्षूभिः) शीघ्रगामी रथ और सेनाओं के सहित (विश्वम्) प्रजाओं की सकल वस्तुओं को (आनुषक्) सर्वदा (परिदीयथः) रक्षा करें (हि) निश्चितरूप से और इसी से उनकी कीर्ति भी बढ़ती रहती है ॥६॥
भावार्थभाषाः - राज्य में जिन उपायों से बुद्धि, शुभकर्म, विद्या, धन और व्यवसाय आदिकों की वृद्धि हो, वे अवश्य करवाये जाएँ ॥६॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तदाह।

पदार्थान्वयभाषाः - अनया पुनरप्यश्विनौ विशिनष्टि। कीदृशौ। दस्रा=दर्शनीयौ। यद्वा “दसु उपक्षये”। शत्रूणामुपक्षयितारौ। पुनः। धियम्+जिन्वा=धियः=मतीः कर्माणि वा प्रीणयन्तौ। मधुवर्णा=मधुरवर्णौ। पुनः। शुभस्पती=कल्याणपती जलस्य पती इति वा। ईदृशौ। युवाम्। मक्षुभिः=शीघ्रगामिभी रथैः सह। विश्वम्=सर्वं वस्तु। आनुषक्=सर्वदा। परिदीयथः=रक्षथः। “हिरवधारणे”। इति युवयोर्महती कीर्तिः ॥६॥